अपराध
आखिर कोन था कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन जिसे दसको तक ढूंढा पुलिस ने और कर दिया था 20 मिनट में ढेर
एक ऐसा नाम जिसका खोफ केवल तमिलनाडु ही नहीं बल्कि केरल और कर्नाटक में भी था उस व्यक्ति का नाम था वीरप्पन, वीरप्पन के कारनामों की चर्चा देश मे ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हुआ करती थी 18 जनवरी 1952 को पैदा हुआ वीरप्पन जब जवान हुआ तो उसकी अपनी एक अलग पहचान बनी वीरप्पन को खूंखार चंदन तस्कर के नाम से जाना जाने लगा यह वीरप्पन वही शख्स था जिसपर करीब दो हजार हाथियों को व सैकड़ों लोगो की हत्या का आरोप था
वीरप्पन का जन्म का पुरा नाम क्रूज मुनि स्वामी वीरप्पन था जैसे-जैसे वीरप्पन बड़ा होने लगा वैसे ही वैसे उसके काले कारनामे भी सामने आने लगे थे 17 वर्ष की उम्र में आते-आते वीरप्पन चंदन तस्कर के नाम से कुख्यात हो चुका था वीरप्पन 17 साल की उम्र में ही हाथियों का शिकार करने लगा था बताया जाता है कि यह खूंखार शख्स जिसका नाम वीरप्पन था वह हाथियों के माथे के बीच में गोलियां मारता था वीरप्पन अपनी मूंछों को ताव देता और लगातार उसने जंगलों को अपना घर बना रखा था सरकार परेशान थी कि आखिर इस शख्स को कैसे पकड़ा जाए सरकार लगातार काफी वर्षों तक वीरप्पन के नाम पर या यह कहें कि वीरप्पन को पकड़ने के लिए करोड़ों रुपए उस समय पर खर्च कर चुकी थी लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगा बताया जाता है कि वीरप्पन दो बार पुलिस के हाथ लगा भी था लेकिन इस बीच वह अपनी चालाकी के साथ भाग निकलता था या यू कहे कि वीरप्पन की गैंग में जो भी लोग हुआ करते थे वह वीरप्पन के एक इशारे पर अपनी जान देने के लिए तैयार रहते थे वही वीरप्पन लगातार लोगों की हत्या कर रहा था वही हाथियों की हत्या कर रहा था।
चंदन तस्कर के रूप में उभरा वीरप्पन अब सरकार के लिए सर दर्द बन चुका था वहीं वीरप्पन के निशाने पर अधिकतर पुलिस वाले बन अधिकारी ही रहे दसको तक वीरप्पन ने चंदन लकड़ी और हाथी दांत की तस्करी की। वीरप्पन जितना कुख्यात अपने काले कारनामों के लिए था उतना ही मशहूर वह अपनी मूंछों के लिए भी था। लगातार 20 वर्षों तक वीरप्पन जंगलों में रहकर सरकार के लिए सर दर्द बना रहा। तब वीरप्पन से तंग आकर जयललिता सरकार ने एक टास्क फोर्स बनाई जिसका काम केवल वीरप्पन को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का था। हालांकि इससे पहले भी जो टास्क फोर्स बनी उन सभी का काम केवल वीरप्पन को पकड़ना ही था लेकिन हर बार वीरप्पन बच निकलता था। जिस पर सरकारों का लगभग करोड रुपए खर्च हो चुका था लेकिन इस बार शायद वीरप्पन की किस्मत ने साथ नहीं दिया और जैसे ही विजय कुमार को जब मुखवरो से पता चला कि वीरप्पन की आंख का इलाज होने के लिए अब वह जंगलों से बाहर निकलने वाला है तभी उसे अक्टूबर 2004 में 20 मिनट के चले एनकाउंटर में ढेर कर दिया गया था।
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